पिकनिक संस्मरण
लेखिका: दीपमाला वैष्णव, कोंडागांव (छत्तीसगढ़)
शीतकालीन छुट्टियों से दो दिन पहले, सुबह के 7 बजे का समय था। हम तीनों शिक्षिकाएँ, हमारे प्रधानपाठक सर और तीनों रसोइये सभी अपने-अपने कामों में व्यस्त थे। थोड़ी ही देर में हमारे बच्चे रंग-बिरंगी तितलियों की तरह एक-एक करके शाला में प्रवेश करने लगे। उनके चेहरों पर रौनक थी—आज रंगीन कपड़े जो पहनने को मिले थे! खुशी तो जैसे छलक रही थी। तभी शाला नायक ने कहा, “मैडम, सभी साथी आ गए हैं, अब कितनी देर में चलेंगे?” सब इतने उत्साहित थे और क्यों न हों, आज पिकनिक जो जाना था!
बस्तर की प्राकृतिक सुंदरता से सजा हुआ कोंडागांव, और उससे 20 किलोमीटर दूर स्थित एक अत्यंत मनोहारी स्थल पाला—आज का पिकनिक स्थल वहीं तय था। सभी तैयार थे। मिनी बस में पिकनिक का पूरा सामान रखा गया, 20 बच्चे और पूरा स्टाफ बस में सवार हो गया। तभी ध्यान आया कि हमारे सफाईकर्मी भैया तो रह ही गए हैं—उन्हें भी साथ ले लिया गया।स्कूल से बस निकली तो बच्चों का शोरगुल शुरू हो गया। ये बच्चे अक्सर घर से बाहर नहीं जाते, तो खुशी लाजिमी थी। रास्ते भर अंताक्षरी चलती रही और हरे-भरे प्राकृतिक दृश्य मन को सुकून दे रहे थे। लगभग आधे घंटे में हम पाला पहुँच गए। वहाँ की सुंदर बहती नदी, चिकने पत्थरों से सजे पहाड़ और स्थानीय लकड़ी की नावें देखकर रोम-रोम पुलकित हो गया। एक मैडम ने भोजन व्यवस्था सँभाली, चूल्हा बन गया, पानी आ गया, कीचन तैयार हो गया।
बच्चों की फरमाइश पर पुलाव, टमाटर फ्राई, बस्तर का स्पेशल बड़ा, पूरी, छोले, पापड़ और सलाद बनाया गया। रसोइये पूरे मन से जुटे थे। मैं बच्चों के साथ खेलों में शामिल हो गई—खो-खो, कबड्डी, दौड़—बच्चे बेहद खुश थे। नदी का पानी एक किनारे तक ही था, बाकी जगह रेत ही रेत। बच्चे बदमाशी पर उतर आए थे। कोई पानी में छप-छप कर रहा था, कोई पेड़ों पर झूल रहा था, कोई पहाड़ पर चढ़ रहा था, तो कोई मछलियाँ पकड़ने की नाकाम कोशिश कर रहा था।खेल-खेल में हम भी बच्चों जैसे हो गए, नदी में उतर गए और लगभग सब भीग ही गए। बॉक्स भी साथ लाए थे—जो बच्चे नाचना चाहते थे, वो नाच रहे थे। करीब तीन घंटे मस्ती चलती रही। इतने में भोजन बन गया। सबने भोजन किया और पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए पत्तों से बने पत्तलों का उपयोग किया गया—डिस्पोज़ल का प्रयोग नहीं किया गया। पिकनिक स्थल पर अक्सर लोग डिस्पोज़ल फेंक जाते हैं, जो पर्यावरण के लिए हानिकारक है। हमने टीम के साथ मिलकर वहाँ पड़े डिस्पोज़ल समेटे और पंचायत द्वारा बनाए गए नाडेप गड्ढे में डाल दिए।
कुछ बच्चों ने नौकाविहार की इच्छा जताई, तो उन्हें नाव में बैठा दिया गया। लेकिन गलती ये हुई कि केवल बच्चों को ही बैठाया गया और उनमें से एक बच्चा नाव से गिर गया। सौभाग्य से पानी ज्यादा गहरा नहीं था और प्रधानपाठक सर ने तत्परता से उसे बाहर निकाल लिया। यह घटना हमें यह सिखा गई कि बच्चों को किसी भी स्थिति में अकेला नहीं छोड़ना चाहिए, खासकर पानी जैसी जगहों पर।आख़िर में वापसी की तैयारी हुई। किसी का मन नहीं था लौटने का, लेकिन आना तो था ही। ठीक 6 बजे हम शाला लौट आए। बच्चे अपने चेहरों पर मुस्कान लिए अलविदा कहकर अपने घर चले गए।